स्वप्न विजय साधना सिद्ध हो जाए तो बहुत काम देती है...!
यादों की दुनिया से कुछ अनुभूतियां 16 नवंबर 2025: (रेक्टर कथूरिया/ /तंत्र स्क्रीन डेस्क )::
बहुत पहले की बात है। ज़िंदगी की गर्दिश ने परेशान कर रखा था। कोई रास्ता नहीं सूझता था। आत्म हत्या तो हमेशां ही बुरी ही लगी बिलकुल उसी तरह जैसे जीवन की जंग को हार जाना। कमज़ोर से कमज़ोर और बुरे से बुरे व्यक्ति को भी कभी हार अच्छी नहीं लगती । ऐसे में बहुत बार ख्याल आता बस भगवान् ही सहारा है। लेकिन ख्याल तो ख्याल ही होता है। उसे एक्शन में साकार किए बिना बात नहीं बनती और इसे एक्शन में साकार करना आसान नहीं होता। फिर भी इसका स्पष्ट इशारा मिला मुझे हरिद्वार की अनौपचारिक यात्रा में। मैं उस समय ऊँगली पकड़ कर तो नहीं चलता था लेकिन स्वतंत्र भागदौड़ की समझ भी नहीं आई थी। मेले में खोने का डर मुझे खुद भी बना रहता और साथ वालों को भी। हरिद्वार में हर की पौड़ी, बड़े बड़े पहाड़, मंदिर, मूर्तियां और कल कल बेहटा गंगा जी का जल बहुत अच्छा लगता। मेरे सबसे बड़े मामा के घर लखनऊ में उनकी बेटी या बेटे की की शादी थी। वहां से लौटते हम लोग हरिद्धार के दर्शनों के लिए चल पड़े। मेरे बाकी के तीन मामा परिवार सहित साथ थे। हम लोग ट्रेन से हरिद्वार पहुंचे थे ,स्टेशन पर गाड़ी पहुँचने से पहले ही माहौल बहुत सुंदर और अध्यतमियक होता चला गया। मेरी उम्र दस बरस से भी बहुत कम थी लेकिन मैं रेलवे स्टेशनों के बोर्डों पर लिखे नाम पढ़ने के प्रयास करने लगा था।
स्टेशन से बाहर निकले तो मेरे मामा हमें उस आश्रम/कम धर्मशाला की तरफ लेजाने लगे जिसे उन्होंने अपने हाथों अपनी देखरेख में बनवाया था। उस समय वह ठेके दारी का काम करते थे। इस प्रोजेक्ट को पूरा करवाए शायद उन्हें कुछ देर हो गई थी या फिर आसपास बहुत से बदलाव आ गए थे कि उन्हें बार बार रस्ते भू ; रहे थे। कभी एक सड़क पर बढ़ते और हूँ फिर का फिर वहीँ चौराहे पर आ जाते। यह जगह हर की पौड़ी के नज़दीक ही थी। अगर हर की पौड़ी की तरफ मुँहकरो तो पीठ के पीछे बाजार था। उसी बाजार में चल कर आगे से आश्रम की तरफ रास्ता निकलता था।
मैं उस समय हरिद्वार में पहली बार गया था पर न जाने मुझे क्या हुआ। मुझे ऐसा लगने लगा कि मैं यहाँ पहले भी आ चुका हूँ। मैंने मां जी से पूछा आप मुझे उस आश्रम का नाम बताएं। वे मेरी बात पर हँसे भी लेकिन उन्हीने नाम बताया और उस रस्ते पर बढ़ने तो राह में आने वाले कुछ पॉइंट भी बताए ,सब सुन कर मेरे मुँह से निकला अब समझ गया ,मैं उन्हें रास्ता बताता गया हम सब आगे बढ़ते गए और कुछ मिनटों बाद ही मां कहने लगे आ गए हम सही राह पर। मैंने उन्हें मोड़ मुद कर आने वाली दुकानों और अन्य इमारतों के नाम और निशानियां भी बताईं।
आश्रम पहुँचने पर हमने भोजन भी किया और आराम भी। सभी ने मुझे बहुत पूछा तुम तो कहते थे तुम यहाँ पहली बार आए हो। फिर यह सारा रास्ता कैसे जानते हो ? मैंने उन्हें लाख समझाया कि यह सब मैंने अपने स्वप्नों में कई बाद देखा हुआ है। मैं खुद हैरान था कि स्वप्न में देखे स्थल और नाम इतने साकार हो कर सामने कैसे आ रहे हैं? किसी ने मेरी बात पर यकीन नहीं किया। मुझे खुद भी अपने बारे में भरम जैसी स्थिति लगने लगी थी लेकिन यह सब सच था। यह सपनों का वह सच सामने आया था जी हकीकत से भी बड़ा सत्य बन कर दिखाई दे रहा था। मेरे लिए यह सचमुच बहुत बड़ी अनुभूति थी। इस सच की चमक मेरी तन मन की आंखों को चुंधिया रही थी। मन में की सवाल खड़े हो रहे थे जिनका जवाब मुझे नहीं मिल रहा था। शायद अध्यात्म और तंत्र साधना की तरफ मेरी उत्सुकता जन्म ले चुकी थी।
वहां आश्रम में मौजूद कुछ साधू बाबाओं से भी इस पर पूछा। बहुतों ने तो मेरी बात हंसी में उड़ा दी लेकिन कुछ गंभीर लोग भी मिले। कहने लगे इस ज्योति को जलाए रखना। जिस दिन यह बड़ी जवका बनेगी उस दिन सही यात्रा पर निकल जाओगे। यही ज्योति रस्ते भी बटेगी और संसाधन भी सहायता भी यही करेगी पर इस ध्यान केंद्रित रखना। फिर एक बाबा ने स्वप्नों के विज्ञानं की चर्चा भी की। साथ ही सावधान भी किया की इस रस्ते पर बढ़े तो दुनियादारी की पढ़ाईलिखि बहुत पीछे छूट जाएगी।
क्या होती है स्वपन विजय साधना यह सवाल मेरे सामने गंभीर होता जा रहा था। हरिद्वार में बहुत कुछ दर्शनीय और बेहद सुंदर है लेकिन मेरे सामने बस यही सवाल मुंह बाएं खड़ा था। उम्र भी छोटी थी और समझ भी बहुत छोटी। उस अल्पबुद्धि में इस सवाल को समझ पाने की क्षमता भी शायद नहीं थी। इसी बीच परिवार के लोगों के सवाल और बातें मुझे सब डिस्टर्ब कर रहे थे। शांत बैठ कर सोच भी नहीं पा रहा था। पता नहीं कब मैं लेते लेते उठा और फिर सीधा बैठ गया। दीवार के साथबड़ा सा सिरहाना भी मिला। लेकिन सिरहाने के बावजूद रीढ़ सीढ़ी हो गई पदम् आसन भी लग गया। आँखें भी बंद हो गई। कुछ ही मिंट गुज़रे थे। स्वप्न विजय साधना का अण्वस्स्ड मन ही ही मन चलने लगा।
उन बंद आँखों से मन देख भी रहा है, कुछ पूछ भी रहा है और कुछ सुन भी रहा है। अनकही बातें बिना कहे कही जा रही थी। इन बातों को बिना कानों के सुने सुना भी जा रहा था। उन बंद आँखों से भी बहुत कुछ देखा रहा था। एक फ़िल्मी गीत याद है शायद फिल्म अनुराग का। जिसमें नायक बिना आँख वाली उस नायिका से पूछता है अरे तूने कैसे जान लिया? जवाब मिलता है - -मन से आँखों का काम लिया का काम लिया।
बाद में इस लोकप्रिय फिल्म की बेहद खूबसूरत नायिका की ऑंखें ठीक हो जाती हैं। उसे फिल्म वाली कहानी के ही एक बच्चे की ऑंखें लगाई जाती हैं। बच्चे का देहांत हो चुका होता है। ठीक होने के बाद वह नायिका उस बच्चे को देखना चाहती है - -उसे ढूंढ़ने की कोशिश करती है लेकिन वह तो जा चुका होता है। अनुमान लगाएं उसे रौशनी देने वाली ज़िंदगी जा चुकी होती है तो उस पर क्या गुज़री होगी? हमारी ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही रहती है। हम बहुत कुछ खो बैठते हैं। पाना - खोना - -खोना पाना बस यही एक सिलसिला है ज़िंदगी। खैर बात तो चल रही थी हरिद्वार के एक आश्रम की। वहां पर मेडिटेशन जैस स्थिति में चल रहे एक स्वप्न की। चलो लौटते हैं उसी मुद्दे पर।
उस समय आश्रम में बैठे हुए जो मनोस्थिति थी उस समय स्वप्न जैसे कुछ दृश्य भी चल रहे हैं। अधखुली आलखों जैसी सी स्तिति भी कह सकते हैं। कुछ दृश्य कभी धुंधले से और कभी कुछ स्पष्ट भी। कभी आमने सामने होती बात भी लगती। स्पष्ट सी परिभाषा शाद मेरी समझ से परे है।
वास्तव में कई लोगों को स्वप्न विजय की सिद्धि भी हो चुकी होती है। ऐसे स्वपन की विजय साधना एक धार्मिक संकल्प का प्रयास हो सकता है जिसमें स्वप्नों के माध्यम से सफलता और उपलब्धि प्राप्त करने का प्रयास और चाहत दोनों मिल कर सक्रिय हो जाते हों। ज़िंदगी की मुश्किलें और मुसीबतों से छुटकारा पाने के रस्ते और समाधान नज़र आने लगते हैं। ज़िंदगी के अंधेरों में रौशनी दिखाते हैं ऐसे स्वप्न।
ऐसा भी लगने लगा कि यह कोई विशेष आध्यात्मिक इशारा भी है। आगे बढ़ना होगा लेकिन कैसे? जवाब मिला स्वपन विजय साधना के माध्यम से ही पता लगाना होगा क्यूं आए हो इस दुनिया में? अब समझ आने लगा कि बचपन में ही बहुत पहले खेलने की तरफ भी मन क्यूं नहीं लगा रहा था। न गिल्ली डंडा न ही पतंगबाज़ी - -किसी में रस नहीं जग रहा था। खाने पीने और सुंदर वस्त्र पहनने की तरफ भी रुचि क्यूं नहीं थी। बस गीत संगीत सुन्ना और पेन्सिल से स्केच बनाना। पीला रंग भी बहुत अच्छा लगता फिर भी सफेद वस्त्र मुझे अच्छे लगते। वस्त्रों में बस एक लंबी चादर सी मुझे बहुत पसंद रही। सिर से लेकर पाँव तक यही थी मेरा वस्त्र। लेटता तो ऊपर ओढ़ लेता और बैठता तो लोई की तरह ओढ़ ओट लेता। ऐसा भी लगा कि इस चादर के साथ में साधना आगे बढ़ाना सुविधाजनक है। ऐसा ही लगता कि अपने स्वप्नों, इच्छाओं, और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उपलब्ध तकनीकों और साधनों का उपयोग भी इस के साथ किया जा सकता है।
स्वपन विजय साधना के लिए कुछ महत्वपूर्ण तत्व ज़रूरी भी होते हैं। एकांत भी. स्वछता भी थोड़ा सा अँधेरा करके आँखों को अधखुला रखना भी। उस चादर को लपेटना और ऊपर ओढ़ना अच्छा अच्छा लगता। सिर से पाँव तक उसे ओढ़ कर लेटने से अच्छा लगता। रेलगाड़ी , रेलवे स्टेशन या सुनसान स्थानों पर तो और भी अच्छा महसूस होता। कभी कभी स्वच्छ ताज़ी हवा के लिए नाक और मुँह से थोड़ी सी चादर हटा कर कुछ लंबे सांस लेना और फिर मेडिटेशन में उतरने के प्रयास करना। उसी चादर से मूंह को ढके हुए ही दिन के समय भी कभी आसमान देख लेना और कभी सितारे, चन्द्रमा और सूर्य इत्यादि भी। ऐसे दृश्य बहुत बार देखे। अलौकिक आनंद भी देते । ऐसी यात्रियों की कृपा उस भगवान् ने बहुत बार की। दूर दराज के कई स्थान उन्हीं स्वप्नों में देखे जहां वास्तव में बहुत बाद में ही जाया जा सका। इनके बारे में पहले कभी कुछ पढ़ा या सुना भी नहीं था। फिर भी यूं लगा जैसे पूरा दृश्य सामने नज़र आ रहा हो। सचमुच बहुत विशेष अनुभव रहा।
मन को शांत करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती थी। यह खुद-ब-खुद शांत होना शुरू हो गया था। बस बैठना और इच्छा करना। मन और स्वप्न की इस यात्रा के साथ साथ तन को भी यात्रा की अनुभूतियां होने लगीं थी। फिर इन अनुभवों और दृश्यों को कागज़ पर उतारने का भी मन होता लेकिन मुझे उस समय ताल लिखने में मुहारत नहीं हुई थी। स्वपन विजय साधना के लिए मन को शांत और स्थिर रखना महत्वपूर्ण भी होता है लेकिन यह सब स्वयंमेव होने लगा था। ध्यान भी लगने लगा और प्राणायाम की इच्छा भी बढ़ने लगी। मेडिटेशन में रहने की इच्छा तो हर पल रहने लगी। अपने मन को शांत करने की इच्छा और साधना की एक अलग सी चमक भी चिहरे पर दिखाई देने लगी। मन और विचारों की स्थिरता भी बढ़ने लगी। मन अध्यात्म की जानकारी की तरफ दौड़ता।
घर परिवार से बिना पूछे कहीं जाना मुमकिन नहीं था। उस उम्र मैं ऐसा रिवाज ही नहीं था। केवल कल्पना ही एक जरिया था जहां मैं अपनी मर्ज़ी से जा सकता था। इसके इलावा कोई रास्ता था तो बस स्वप्न का ही था। जब जागता रहता तब भी मैं इस मकसद के संकल्प को मज़बूत बनाता। सचमुच संकल्प शक्ति में बहुत सी क्षमता छुपी होती है। मैंने अपने उद्देश्यों और मकसद पर अपने स्वप्न बुनने शुरू किए। साहिर लुधियानवी साहिब की पंक्तियाँ प्रेरणा भी देती - -ज़रा देखें एक नज़र:
तुम ने कितने सपने देखे मैं ने कितने गीत बुने
इस दुनिया के शोर में लेकिन दिल की धड़कन कौन सुने
सरगम की आवाज़ पे सर को धुनने वाले लाखों पाए
नग़्मों की खिलती कलियों को चुनने वाले लाखों पाए
राख हुए जो दिल में जल कर वो अंगारे कौन चुने
तुम ने कितने सपने देखे मैं ने कितने गीत बुने
अरमानों के सूने घर में हर आहट बेगानी निकली
दिल ने जब नज़दीक से देखा हर सूरत अन-जानी निकली
बोझल घड़ियाँ गिनते गिनते सदमे हो गए लाख गुने
तुम ने कितने सपने देखे मैं ने कितने गीत बुने। ..!
यह गीत और साहिर लुधियानवी साहिब की अन्य रचनाएं। मन को किसी दूसरी दुनिया में जाने में काफी सहायक रहे। बहुत बार लगने लगता यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! साहिर लुधियानवी साहिब के गीतों ने मुझे जहाँ समाजवाद के नज़दीक किया वहां शायरी की दुनिया के काफी नज़दीक भी किया। दुनिया में रहते हुए दुनिया से अलग ह कर सोचने के अनुभव इस शायरी ने भी बहुत दिए। उन दिनों रेडियो में ऐसे गीत संगीत आते भी बहुत थे।
साहिर साहिब भी मुझे इस बात की प्रेरणा देते रहे कि सपने भी कैसे बुने जाते हैं गीत भी कैसे बुने जाते हैं। इस गीत साधना के रास्ते भी मुझे अपने लक्ष्यों को स्पष्ट करेने में सहायता मिलती रही। फिर उनसे अपने संकल्पों को देखने समझने और मज़बूत बनाने की कला भी आती गई। सोते जागते वे गीत, उनके बोल मेरे दिन रात के रूटीन में शामिल हो गए। मेरा सोने जागने रूटीन भी सुधरने लगा। सुबह ढाई तीन बजे जग जाना , प्राणायाम करना और पांच छह बजे तक तैयार हो जाना इसी रूटीन से समझा और सीखा। धीरे धीरे इस तरफ रुचि विकसित हुई तो इसी क्षेत्र से जुड़े अच्छे अनुभवी लोग भी मिलते रहे।
दिल्ली में जब डाक्टर मुखर्जीनगर में रहना हुआ तो यमुना किनारे जा कर मेडिटेशन में बैठना भी रोज़ की बात हो गई। मेरे साथ कभी कभार दो चार लोगों की मित्र मंडली भी होती थी। उस उम्र में गिने चुने मित्रों की यह मंडली शायद ज़रूरी भी थी। उनको मालुम था उस बांध के नज़दीक किस जगह मैं समाधि में बैठता था। एक बार घर लौटने में अँधेरा हुआ तो उन्होंने मेरे परिवा और मोहल्ले को बता दिया। कहीं बाढ़ न आ गई हो कहीं बाँध से पानी न छोड़ा गया हो , कहीं उधर कोई खूंखार जानवर न आ निकला हो . ..!परिवार के लोग और अड़ोस पड़ोस वाले ढूंढ़ने पहुंचे। जिन मित्रों को जगह मालूम थे वे ही साथ लेकर वहां गए थे।
योगाभ्यास भी इसी रूटीन से ज़िंदगी में शामिल हुआ। योग से जहाँ शरीरक तंदरुस्ती मिलती वहीँ मानसिक शक्ति, भी मिलती। शरीरिक स्वास्थ्य और उच्च स्तरीय ध्यान प्राप्त करने की इच्छा और मार्गदर्शन भी मिलता गया। यह मार्गदर्शन ज़िंदगी की अधयत्मिक यात्रा में भी मदद कर सकता है। नियमित योगाभ्यास करने से मनोदशा भी सुधरती है और दिशा भी सही मिलती है। ऐसा होने से स्वप्नों को साकार करने में भी सहायता मिलती है।
इसी संबंध में पुराणों और शास्त्रों का अध्ययन करें तो हिंदू धर्म में, स्वप्न विजय साधना के बारे में कैफीकुछ मिलता है। विविध पुराणों और ग्रंथों में इस तरह की बहुत सी अर्थपूर्ण बात की गई है। जिनको यह सब कठिन लगता हो वे लोग ओशो के ज़रिये इनका अधीन कर सकते हैं समझ जल्दी आ जाएगी। इन पुराणों और ग्रंथों का अध्ययन करने से आपको स्वप्नों के विजय पर विस्तारित ज्ञान मिल सकता है। स्वप्न में क्या देखना चाहते हैं आप इस का भी ज्ञान है। इसका पता चलते ही उस अलौकिक ज्ञान की झलक मिलनी शुर होती है।
हाँ इस संबंध में नियमित और ईमानदार रूप से साधना करना आवश्यक है। जो लोग खुद के प्रति ईमानदार नहीं होते वे साधना व संसार के प्रति भी ईमानदार नहीं हो सकते। स्वप्न विजय साधना के लिए नियमितता और निष्ठा महत्वपूर्ण हैं। संकल्प तभी मज़बूत बन पाएंगे। आपको अपने विशिष्ट साधनाओं को निरंतरता के साथ करना चाहिए और उन्हें पूरा करने के बाद निष्ठा के साथ प्रतिक्रिया करनी चाहिए। इसी क्रिया प्रतिक्रिया से ही नया नया ज्ञान भी मिलेगा।
यदि आप स्वप्न विजय साधना करना चाहते हैं, तो यह आपके धार्मिक अनुयायियों या आपके गुरु या धार्मिक मार्गदर्शक के संपर्क में रहने से मदद मिलतिओ ही है। इसी दिशा में यात्रा करने वाले मित्रों, सहयोगियों या साथियों की नज़दीकी भी आमतौर पर सहायक रहती है वैसे इस दिशा की यात्रा कई बार बिलकुल अकेले में अधिक मज़ेदार भी रहती है।
इस आश्रम में मेरे आसपास परिवार के भी काफी लोग थे। इस से ध्यान साधना बार बार भंग हो रही थी। उस छोटी आयु में वहां से निकल कर मैं कहाँ गया यह एक अलग कहानी है जिसकी चर्चा मैं हकड़ ही करूंगा। तब के लिए आज्ञा चाहता हूँ कि यह पोस्ट पहले ही काफी लंबी हो गई है। इस आश्रम की जानकारी भी जल्द ही किसी अलग पोस्ट में सांझी करूंगा कि कैसे पंजाब के एक बहुत बड़े कारोबारी ने अपनी श्रद्धा से इसे बनाया। इसकी सेवा उन्होंने उन महापुरुषों के चरणों में की जिन्हें वह अपना गुरु मानते थे उनकी मान्यता भी बहुत है। हमें यहाँ जाने का सुअवसर मिला इसी आश्रम का निर्माण करवाने वाले ठेकेदार गुरुचरण सिंह छाबड़ा के स्नेह और सहयोग से।
--रेक्टर कथूरिया/ /तंत्र स्क्रीन डेस्क






