Monday, November 17, 2025

स्वप्न विजय साधना सिद्ध हो जाए तो बहुत काम देती है...!

स्वप्न विजय साधना सिद्ध हो जाए तो बहुत काम देती है...!

यादों की दुनिया से कुछ अनुभूतियां 16 नवंबर 2025: (रेक्टर कथूरिया/ /तंत्र स्क्रीन डेस्क )::


बहुत पहले की बात है।
ज़िंदगी की गर्दिश ने परेशान कर रखा था।  कोई रास्ता नहीं सूझता था। आत्म हत्या तो हमेशां ही बुरी ही लगी बिलकुल उसी तरह जैसे जीवन की जंग को हार जाना। कमज़ोर से कमज़ोर और बुरे से बुरे व्यक्ति को भी कभी हार अच्छी नहीं लगती ।  ऐसे में बहुत बार ख्याल आता बस भगवान् ही सहारा है। लेकिन ख्याल तो ख्याल ही होता है। उसे एक्शन में साकार किए बिना बात नहीं बनती और इसे एक्शन में साकार करना आसान नहीं होता। फिर भी इसका स्पष्ट इशारा मिला मुझे हरिद्वार की अनौपचारिक यात्रा में।   मैं उस समय ऊँगली पकड़ कर तो नहीं चलता था लेकिन स्वतंत्र भागदौड़ की समझ भी नहीं आई थी। मेले में खोने का डर मुझे खुद भी बना रहता और साथ वालों को भी।  हरिद्वार में हर की पौड़ी,  बड़े बड़े पहाड़, मंदिर,  मूर्तियां और कल कल बेहटा गंगा जी का जल बहुत अच्छा लगता।  मेरे सबसे बड़े मामा के घर लखनऊ में उनकी बेटी या बेटे की की शादी थी। वहां से लौटते हम लोग हरिद्धार के दर्शनों के लिए चल पड़े।  मेरे बाकी के तीन मामा परिवार सहित साथ थे। हम लोग ट्रेन से हरिद्वार पहुंचे थे ,स्टेशन पर गाड़ी पहुँचने से पहले ही माहौल बहुत सुंदर और अध्यतमियक होता चला गया। मेरी उम्र दस बरस से भी बहुत कम थी लेकिन मैं रेलवे स्टेशनों के बोर्डों पर लिखे नाम पढ़ने के प्रयास करने लगा था। 

स्टेशन से बाहर निकले तो मेरे मामा हमें उस आश्रम/कम धर्मशाला की तरफ लेजाने लगे जिसे उन्होंने अपने हाथों अपनी देखरेख में बनवाया था। उस समय वह ठेके दारी का काम करते थे। इस प्रोजेक्ट को पूरा करवाए शायद उन्हें कुछ देर हो गई थी या फिर आसपास बहुत से बदलाव आ गए थे कि उन्हें बार बार रस्ते भू ;  रहे थे। कभी एक सड़क पर  बढ़ते और हूँ फिर का फिर वहीँ चौराहे पर आ जाते। यह जगह हर की पौड़ी के नज़दीक ही थी। अगर हर की पौड़ी की तरफ मुँहकरो तो पीठ के पीछे बाजार था। उसी बाजार में चल कर आगे से आश्रम की तरफ रास्ता निकलता था। 

मैं उस समय हरिद्वार में पहली बार गया था पर न जाने मुझे क्या हुआ। मुझे ऐसा लगने लगा कि मैं यहाँ पहले भी आ चुका हूँ। मैंने मां जी से पूछा आप मुझे उस आश्रम का नाम बताएं। वे मेरी बात पर हँसे भी लेकिन उन्हीने नाम बताया और उस रस्ते पर बढ़ने तो राह में आने वाले कुछ पॉइंट भी बताए ,सब सुन कर मेरे मुँह से निकला अब समझ गया ,मैं उन्हें रास्ता बताता गया हम सब आगे बढ़ते गए और कुछ मिनटों बाद ही मां कहने लगे आ गए हम सही राह पर। मैंने उन्हें मोड़ मुद कर आने वाली दुकानों और अन्य इमारतों के नाम और निशानियां भी बताईं। 

आश्रम पहुँचने पर हमने भोजन भी किया और आराम भी। सभी ने मुझे बहुत पूछा तुम तो कहते थे तुम यहाँ पहली बार आए हो। फिर यह सारा रास्ता कैसे जानते हो ?  मैंने उन्हें लाख समझाया कि यह सब मैंने अपने स्वप्नों में कई बाद देखा हुआ है। मैं खुद हैरान था कि स्वप्न में देखे स्थल और नाम इतने साकार हो कर सामने कैसे आ रहे हैं? किसी ने मेरी बात पर यकीन नहीं किया। मुझे खुद भी अपने बारे में भरम जैसी स्थिति लगने लगी थी लेकिन यह सब सच था। यह सपनों का वह सच सामने आया था जी हकीकत से भी बड़ा सत्य बन कर दिखाई दे रहा था। मेरे लिए यह सचमुच बहुत बड़ी अनुभूति थी। इस सच की चमक मेरी तन मन की आंखों को चुंधिया रही थी। मन में की सवाल खड़े हो रहे थे जिनका जवाब मुझे नहीं मिल रहा था। शायद अध्यात्म और तंत्र साधना की तरफ मेरी उत्सुकता जन्म ले चुकी थी। 

वहां आश्रम में मौजूद कुछ साधू बाबाओं से भी इस पर पूछा। बहुतों ने तो मेरी बात हंसी में उड़ा दी लेकिन कुछ गंभीर लोग भी मिले। कहने लगे इस ज्योति को जलाए रखना। जिस दिन यह बड़ी जवका बनेगी उस दिन सही यात्रा पर निकल जाओगे। यही ज्योति रस्ते भी बटेगी और संसाधन भी सहायता भी यही करेगी पर इस ध्यान केंद्रित रखना। फिर एक बाबा ने स्वप्नों के विज्ञानं की चर्चा भी की। साथ ही सावधान भी किया की इस रस्ते पर बढ़े तो दुनियादारी की पढ़ाईलिखि बहुत पीछे छूट जाएगी। 

क्या होती है स्वपन विजय साधना यह सवाल मेरे सामने गंभीर होता जा रहा था। हरिद्वार में बहुत कुछ दर्शनीय और बेहद सुंदर है लेकिन मेरे सामने बस यही सवाल मुंह बाएं खड़ा  था। उम्र भी छोटी थी और समझ भी बहुत छोटी। उस अल्पबुद्धि में इस सवाल को समझ पाने की क्षमता भी शायद नहीं थी। इसी बीच परिवार के लोगों के सवाल और बातें मुझे सब डिस्टर्ब कर रहे थे। शांत बैठ कर सोच भी नहीं पा रहा था। पता नहीं कब मैं लेते लेते उठा और फिर सीधा बैठ गया। दीवार के साथबड़ा सा सिरहाना भी मिला। लेकिन सिरहाने के बावजूद रीढ़ सीढ़ी हो गई पदम् आसन भी लग गया। आँखें भी बंद हो गई। कुछ ही मिंट गुज़रे थे। स्वप्न विजय साधना का अण्वस्स्ड मन ही ही मन चलने लगा। 

उन बंद आँखों से मन देख भी रहा है,  कुछ पूछ भी रहा है और कुछ सुन भी रहा है। अनकही बातें बिना कहे कही जा रही थी। इन बातों को बिना कानों के सुने सुना भी जा रहा था। उन बंद आँखों से भी बहुत कुछ देखा रहा था। एक फ़िल्मी गीत याद है शायद फिल्म अनुराग का। जिसमें नायक बिना आँख वाली उस नायिका से पूछता है अरे तूने कैसे जान लिया?  जवाब मिलता है - -मन से आँखों का काम लिया  का काम लिया। 

बाद में इस लोकप्रिय फिल्म की बेहद खूबसूरत नायिका की ऑंखें ठीक हो जाती हैं। उसे फिल्म वाली कहानी के ही एक बच्चे की ऑंखें लगाई जाती हैं। बच्चे का देहांत हो चुका होता है।  ठीक होने के बाद वह नायिका उस बच्चे को देखना चाहती है - -उसे ढूंढ़ने की कोशिश करती है लेकिन वह तो जा चुका होता है। अनुमान लगाएं उसे रौशनी देने वाली ज़िंदगी जा चुकी होती है तो उस पर क्या गुज़री होगी? हमारी ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही रहती है। हम बहुत कुछ खो बैठते हैं। पाना - खोना - -खोना पाना बस यही एक सिलसिला है ज़िंदगी। खैर बात तो चल रही थी हरिद्वार के एक आश्रम की। वहां पर मेडिटेशन जैस स्थिति में चल रहे एक स्वप्न की। चलो लौटते हैं उसी मुद्दे पर। 

उस समय आश्रम में बैठे हुए जो मनोस्थिति थी उस समय स्वप्न जैसे कुछ दृश्य भी चल रहे हैं। अधखुली आलखों जैसी सी स्तिति भी कह सकते हैं। कुछ दृश्य कभी धुंधले से और कभी कुछ स्पष्ट भी। कभी आमने सामने होती बात भी लगती। स्पष्ट सी परिभाषा शाद मेरी समझ से परे  है। 

वास्तव में कई लोगों को स्वप्न विजय की सिद्धि भी हो चुकी होती है।  ऐसे स्वपन की विजय साधना एक धार्मिक संकल्प का प्रयास हो सकता है जिसमें  स्वप्नों के माध्यम से सफलता और उपलब्धि प्राप्त करने का प्रयास और चाहत दोनों मिल कर सक्रिय हो जाते हों। ज़िंदगी की मुश्किलें और मुसीबतों से छुटकारा पाने के रस्ते और समाधान नज़र आने लगते हैं। ज़िंदगी के अंधेरों में रौशनी दिखाते हैं ऐसे स्वप्न।  

ऐसा भी लगने लगा कि यह कोई विशेष आध्यात्मिक इशारा भी है। आगे बढ़ना होगा लेकिन कैसे?  जवाब मिला स्वपन विजय साधना के माध्यम से ही पता लगाना होगा क्यूं आए हो इस दुनिया में? अब समझ आने लगा कि बचपन में ही बहुत पहले खेलने की तरफ भी मन क्यूं नहीं लगा रहा था। न गिल्ली डंडा न ही पतंगबाज़ी - -किसी में रस नहीं जग रहा था।  खाने पीने और सुंदर वस्त्र पहनने की तरफ भी रुचि क्यूं नहीं थी। बस गीत संगीत सुन्ना और पेन्सिल से स्केच बनाना। पीला रंग भी बहुत अच्छा लगता फिर भी सफेद वस्त्र मुझे अच्छे लगते। वस्त्रों में बस एक लंबी चादर सी मुझे बहुत पसंद रही। सिर से लेकर पाँव तक यही थी मेरा वस्त्र। लेटता तो ऊपर ओढ़ लेता और बैठता तो लोई की तरह ओढ़ ओट लेता। ऐसा भी लगा कि इस चादर के साथ में साधना आगे बढ़ाना सुविधाजनक है।  ऐसा ही लगता कि अपने स्वप्नों, इच्छाओं, और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उपलब्ध तकनीकों और साधनों का उपयोग भी इस के साथ किया जा सकता है। 

स्वपन विजय साधना के लिए कुछ महत्वपूर्ण तत्व ज़रूरी भी होते हैं। एकांत भी.  स्वछता भी थोड़ा सा अँधेरा करके आँखों को अधखुला रखना भी। उस चादर को लपेटना और ऊपर ओढ़ना अच्छा अच्छा लगता। सिर से पाँव तक उसे ओढ़ कर लेटने से अच्छा लगता। रेलगाड़ी , रेलवे स्टेशन या सुनसान स्थानों पर तो और भी अच्छा महसूस होता। कभी कभी स्वच्छ ताज़ी हवा के लिए नाक और मुँह से थोड़ी सी चादर हटा कर कुछ लंबे सांस लेना और फिर मेडिटेशन में उतरने के प्रयास करना। उसी चादर से मूंह को ढके हुए ही दिन के समय भी कभी आसमान देख लेना और कभी सितारे,  चन्द्रमा और सूर्य इत्यादि भी। ऐसे दृश्य बहुत बार देखे। अलौकिक आनंद भी देते ।  ऐसी यात्रियों की कृपा उस भगवान् ने बहुत बार की। दूर दराज के कई स्थान उन्हीं स्वप्नों में देखे जहां वास्तव में बहुत बाद में ही जाया जा सका। इनके बारे में पहले कभी कुछ पढ़ा या सुना भी नहीं था। फिर भी यूं लगा जैसे पूरा दृश्य सामने नज़र आ रहा हो। सचमुच बहुत विशेष अनुभव रहा। 

मन को शांत करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती थी। यह खुद-ब-खुद शांत होना शुरू हो गया था। बस बैठना और इच्छा करना। मन और स्वप्न की इस यात्रा के साथ साथ तन को भी यात्रा की अनुभूतियां होने लगीं थी। फिर इन अनुभवों और दृश्यों को कागज़ पर उतारने का भी मन होता लेकिन मुझे उस समय ताल लिखने में मुहारत नहीं हुई थी। स्वपन विजय साधना के लिए मन को शांत और स्थिर रखना महत्वपूर्ण भी होता है लेकिन यह सब स्वयंमेव होने लगा था। ध्यान भी लगने लगा और प्राणायाम की इच्छा भी बढ़ने लगी। मेडिटेशन में रहने की इच्छा तो हर पल रहने लगी। अपने मन को शांत करने की इच्छा और साधना की एक अलग सी चमक भी चिहरे पर दिखाई देने लगी। मन और विचारों की स्थिरता भी बढ़ने लगी। मन अध्यात्म की जानकारी की तरफ दौड़ता। 

घर परिवार से बिना पूछे कहीं जाना मुमकिन नहीं था। उस उम्र मैं ऐसा रिवाज ही नहीं था। केवल कल्पना ही एक जरिया था जहां मैं अपनी मर्ज़ी से जा सकता था। इसके इलावा कोई रास्ता था तो बस स्वप्न का ही था। जब जागता रहता तब भी मैं इस मकसद के संकल्प को मज़बूत बनाता।  सचमुच संकल्प शक्ति में बहुत सी क्षमता छुपी होती है। मैंने अपने उद्देश्यों और मकसद पर अपने स्वप्न बुनने शुरू किए। साहिर लुधियानवी साहिब की पंक्तियाँ प्रेरणा भी देती - -ज़रा देखें एक नज़र:

तुम ने कितने सपने देखे मैं ने कितने गीत बुने

इस दुनिया के शोर में लेकिन दिल की धड़कन कौन सुने


सरगम की आवाज़ पे सर को धुनने वाले लाखों पाए

नग़्मों की खिलती कलियों को चुनने वाले लाखों पाए


राख हुए जो दिल में जल कर वो अंगारे कौन चुने

तुम ने कितने सपने देखे मैं ने कितने गीत बुने


अरमानों के सूने घर में हर आहट बेगानी निकली

दिल ने जब नज़दीक से देखा हर सूरत अन-जानी निकली


बोझल घड़ियाँ गिनते गिनते सदमे हो गए लाख गुने

तुम ने कितने सपने देखे मैं ने कितने गीत बुने। ..!

यह गीत और साहिर लुधियानवी साहिब की अन्य रचनाएं। मन को किसी दूसरी दुनिया में जाने में काफी सहायक रहे। बहुत बार लगने लगता यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! साहिर लुधियानवी साहिब के गीतों ने मुझे जहाँ समाजवाद के नज़दीक किया वहां शायरी की दुनिया के काफी नज़दीक भी किया। दुनिया में रहते हुए दुनिया से अलग ह कर सोचने के अनुभव इस शायरी ने भी बहुत दिए। उन दिनों रेडियो में ऐसे गीत संगीत आते भी बहुत थे। 

साहिर साहिब भी मुझे इस बात की प्रेरणा देते रहे कि सपने भी कैसे बुने जाते हैं गीत भी कैसे बुने जाते हैं। इस गीत साधना के रास्ते भी मुझे अपने लक्ष्यों को स्पष्ट करेने में सहायता मिलती रही। फिर उनसे अपने संकल्पों को देखने समझने और मज़बूत बनाने की कला भी आती गई।  सोते जागते वे गीत,  उनके बोल मेरे दिन रात के रूटीन में शामिल हो गए। मेरा सोने जागने रूटीन भी सुधरने लगा।  सुबह ढाई तीन बजे जग जाना ,  प्राणायाम करना और पांच छह बजे तक तैयार हो जाना इसी रूटीन से समझा और सीखा। धीरे धीरे इस तरफ रुचि विकसित हुई तो इसी क्षेत्र से जुड़े अच्छे अनुभवी लोग भी मिलते रहे। 

दिल्ली में जब डाक्टर मुखर्जीनगर में रहना हुआ तो यमुना किनारे जा कर मेडिटेशन में बैठना भी रोज़ की बात हो गई। मेरे साथ कभी कभार दो चार लोगों की मित्र मंडली भी होती थी। उस उम्र में गिने चुने मित्रों की यह मंडली शायद ज़रूरी भी थी। उनको मालुम था उस बांध के नज़दीक किस जगह मैं समाधि में बैठता था। एक बार घर लौटने में अँधेरा हुआ तो उन्होंने मेरे परिवा और मोहल्ले को बता दिया। कहीं बाढ़ न आ गई हो कहीं बाँध से पानी न छोड़ा गया हो ,  कहीं उधर कोई खूंखार जानवर न आ निकला हो . ..!परिवार के लोग और अड़ोस पड़ोस वाले ढूंढ़ने पहुंचे। जिन मित्रों को जगह मालूम थे वे ही साथ लेकर वहां गए थे। 

योगाभ्यास भी इसी रूटीन से ज़िंदगी में शामिल हुआ। योग से जहाँ शरीरक तंदरुस्ती मिलती वहीँ मानसिक शक्ति, भी मिलती। शरीरिक स्वास्थ्य और उच्च स्तरीय ध्यान प्राप्त करने  की इच्छा और मार्गदर्शन भी मिलता गया। यह मार्गदर्शन ज़िंदगी की अधयत्मिक यात्रा में भी मदद कर सकता है। नियमित योगाभ्यास करने से मनोदशा भी सुधरती है और दिशा भी सही मिलती है। ऐसा होने से स्वप्नों को साकार करने में भी सहायता मिलती है।

इसी संबंध में पुराणों और शास्त्रों का अध्ययन करें तो हिंदू धर्म में, स्वप्न विजय साधना के बारे में कैफीकुछ मिलता है। विविध पुराणों और ग्रंथों में इस तरह की बहुत सी अर्थपूर्ण बात की गई है। जिनको यह सब कठिन लगता हो वे लोग ओशो के ज़रिये इनका अधीन कर सकते हैं समझ जल्दी आ जाएगी।  इन पुराणों और ग्रंथों का अध्ययन करने से आपको स्वप्नों के विजय पर विस्तारित ज्ञान मिल सकता है। स्वप्न में क्या देखना चाहते हैं आप इस का भी ज्ञान है। इसका पता चलते ही उस अलौकिक ज्ञान की झलक मिलनी शुर होती है। 

हाँ इस संबंध में नियमित और ईमानदार रूप से साधना करना आवश्यक है। जो लोग खुद के प्रति ईमानदार नहीं होते वे साधना व संसार के प्रति भी ईमानदार नहीं हो सकते।  स्वप्न विजय साधना के लिए नियमितता और निष्ठा महत्वपूर्ण हैं। संकल्प तभी मज़बूत बन पाएंगे। आपको अपने विशिष्ट साधनाओं को निरंतरता के साथ करना चाहिए और उन्हें पूरा करने के बाद निष्ठा के साथ प्रतिक्रिया करनी चाहिए। इसी क्रिया प्रतिक्रिया से ही नया नया ज्ञान भी मिलेगा। 

यदि आप स्वप्न विजय साधना करना चाहते हैं, तो यह आपके धार्मिक अनुयायियों या आपके गुरु या धार्मिक मार्गदर्शक के संपर्क में रहने से मदद मिलतिओ ही है। इसी दिशा में यात्रा करने वाले मित्रों, सहयोगियों या साथियों की नज़दीकी भी आमतौर पर सहायक रहती है वैसे इस दिशा की यात्रा कई बार बिलकुल अकेले में अधिक मज़ेदार भी रहती है। 

इस आश्रम में मेरे आसपास परिवार के भी काफी लोग थे। इस से ध्यान साधना बार बार भंग हो रही थी। उस छोटी आयु में वहां से निकल कर मैं कहाँ गया यह एक अलग कहानी है जिसकी चर्चा मैं हकड़ ही करूंगा। तब के लिए आज्ञा चाहता हूँ कि यह पोस्ट पहले ही काफी लंबी हो गई है। इस आश्रम की जानकारी भी जल्द ही किसी अलग पोस्ट में सांझी करूंगा कि कैसे पंजाब के एक बहुत बड़े कारोबारी ने अपनी श्रद्धा से इसे बनाया। इसकी सेवा उन्होंने उन महापुरुषों के चरणों में की जिन्हें वह अपना गुरु मानते थे उनकी मान्यता भी बहुत है।  हमें यहाँ जाने का सुअवसर मिला इसी आश्रम का निर्माण करवाने वाले ठेकेदार गुरुचरण सिंह छाबड़ा के स्नेह और सहयोग से। 

                              --रेक्टर कथूरिया/ /तंत्र स्क्रीन डेस्क

Wednesday, November 12, 2025

बहुत जल्दी सुन लेते हैं काल भैरव भक्तों की पुकार

Wednesday 11th November 2025 Regarding Kaal Bhairav Jayanti 2025 Details Kaal Bhairav//Tantra Screen 

चंडीगढ़:11 नवंबर 2025: (मीडिया लिंक रविंद्र/ /तंत्र स्क्रीन-अध्यात्म डेस्क)::

सिसवा डैम के नज़दीक स्थित भगवान काल भैरव मंदिर को बिलकुल ही निकट महसूस करते हुए थोड़ा सा ही सोचा तो कई अनुभव होने लगे। काल भैरव से मेरा स्नेह और इनमें मेरी आस्था बहुत पुरानी है।  इसकी शुरुआत का सही समय भूल गया है लेकिन मैं अभी 9 बरस का भी नहीं हुआ था। 

                      काठमांडू नेपाल में स्थित इस प्रतिमा की तस्स्वीर क्लिक की रुपेशाग्राफी ने 
उन दिनों के ज्योतिषी लोग यूट्यूब के साथ सुसज्जित नहीं हुआ करते थे।
ऐसा कुछ उन दिनों था भी नहीं। बड़ा सा कुरता पहना होता उसके साथ पायजामा कभी कभार ही होता आम तौर पर धोती जैसी पौशाक होती। ।  कंधे पर तीन झोले लटकते होते। एक में वह सामान डालते जों जयोतिष लगवाने वाले उपाय के लिए ला कर देते। सरसों के तेल का बर्तन भी होता। एक झोले में उपाय के रत्न इत्यादि भी होते। हाथ में जंत्रियां हुआ करती थीं और हाथों की उँगलियों में पांसे जैसी चौकौर से कुछ डिज़ाइन जो एक माला जैसी चीज़ से लटके होते। हर सवाल पर वह इन्हीं चौकौर खानों को नीची बिछाई छड्ड पर फेंकते। फिर कई बार जंत्री भी खंगालते। कई बार हाथों की लकीरें भी गहराई से देखते। यही थे उस दौर के ज्योतिषी। हर गली में चक्क्र लगा कर आवाज़ भी देते कि कौन सा दिन त्यौहार है ?  

बस यही याद करते करते विचार आया कि कल अर्थात बुधवार को 12 नवंबर 2025 है। लगा निश्चय ही कल का यह दिन त्यौहार भी ख़ास ही होगा क्यूंकि कल को काल भैरव जयंती है। इसका पक्का होने पर काल भैरव जी का समरण भी हुआ। बहुत छोटी सी उम्र में हुआ था परिचय। भगवान शिव के इस अवतार का पता चलते ही मुझे लगा जैसे पाने किसी पारिवारिक पुरखे से बात हो गई ही। भगवान् से शिव के साथ इस अनन्य प्रेम की कहानी भी अलग है जिसकी चर्चा फिर कभी सही।  

वास्तव में मुख्य हिन्दू दिन त्योहारों में कालभैरव जयंती का अपना ही महत्व है। इस त्यौहार को जिसे कालाष्टमी भी कहते हैं) है। वास्तव में यह दिन भगवान शिव के रौद्र रूप, भगवान कालभैरव के अवतरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस रौद्र रूप को देखने ,  दिखने और अपनाने की ज़रूरत ज़िन्दगी में कई बार महसूस होती है। भक्त इस दिन व्रत रखते हैं और भय, पाप व संकटों से मुक्ति पाने के लिए उनकी विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। इस रूप के स्मरण मात्र से ही एक शक्ति का अहसास होता है। एक आत्म विश्वास जागने लगता है। 

अब जबकि 12 नवंबर 2025 को कालभैरव जयंती है तो थोड़ी सी आस्था होते ही आप महसूस कर सकते हैं कि तन मन में बहुत से बदलाव आते हैं। बहुत ही अदभुत अहसास-शक्ति के,  क्षमता के,  आत्म विश्वास के विजय के और भगवान काल बी भैरव के दर्शनों के। साथ ही इस तरह के योग भी बनने लगते हैं। भगवान काल भैरव के स्वरूप को ध्यान से देखने का मन भी होता है। आसपास स्थित भगवान् काल भैरव मंदिर के दर्शनों की अभिलाषा भी होने लगती है। 

काल भैरव जयंती पर यह उल्लेख भी ज़रूरी है कि काशी के कोतवाल, जिनसे काल भी डरता है वह बहुत बड़ी शक्ति हैं। जानिए क्यों कहलाते हैं कालभैरव 'काशी के कोतवाल' वैसे यह कहानी भी जल्द ही अलग से राख्नेगे आप के सामने। 

गौरतलब यह भी कि हर साल कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भगवान कालभैरव की जयंती भक्ति और श्रद्धा से मनाई जाती है। 

वैसे तो मोहाली-चंडीगढ़ क्षेत्र में कई भैरव मंदिर हैं, लेकिन श्री काल भैरव का सबसे प्रसिद्ध मंदिर सिसवां डैम, नया चंडीगढ़ के पास स्थित है। 

श्री भैरव जाति मंदिर की भी बहुत गहरी मान्यता है यह मंदिर चंडीगढ़-बद्दी रोड पर स्थित है। यह स्थान प्रकृति से घिरा हुआ है और सिसवां डैम के पास होने के कारण बहुत शांत और सुंदर है। यह विशेष रूप से काल भैरव की पूजा के लिए जाना जाता है। तंत्र साधना करने वाले भी अक्सर यहाँ हाज़री लगवाते हैं। 

अन्य भैरव मंदिर भी आसपास हैं। इसी क्षेत्र में कई अन्य भैरव मंदिर भी हैं। भैरव मंदिर, मनसा देवी परिसर: यह मंदिर पंचकूला में मनसा देवी परिसर के भीतर स्थित है। श्री भैरव मंदिर, ढकौली: यह मंदिर जीरकपुर में स्थित है। 

भैरव जाति मंदिर, सिसवां, न्यू चंडीगढ़ सचमुच चंडीगढ़ क्षेत्र में एक अवश्य देखने योग्य स्थान है फिर भी दर्शन तो किस्मत से ही होते हैं।

कुछ लोग नॉनवेज और शराब के सेवन को इस मौके पर अच्छा समझते हैं। लेकिन है यह व्यक्तिगत मान्यता। अंडा मांसाहार और शराब का सेवन आपकी व्यक्तिगत मान्यताओं और परंपराओं पर निर्भर करता है, लेकिन सामान्य धार्मिक मान्यताओं के अनुसार धार्मिक त्योहारों, विशेषकर कालभैरव जयंती जैसे शुभ और पवित्र दिनों पर, अधिकांश लोग अंडा, मांस और शराब के सेवन से परहेज करते हैं।

कुछ लोग इसे लेकर धार्मिक कारण बताते हैं और इनकी पालना सही समझते हैं। यह बात भी सभी जानते समझते हैं कि हिन्दू धर्म में त्योहारों और उपवास के दिनों को सात्विक (शुद्ध) रहने और मन व शरीर को पवित्र रखने का समय माना जाता है। तामसिक (मांस, शराब, आदि) भोजन का सेवन इस दिन वर्जित माना जाता है, क्योंकि यह पूजा-पाठ के माहौल के विपरीत होता है। पूजा पता का माहौल सात्विक रखा जाना ज़रूरी भी है। इसलिए तामसिक सोच और खानपान से परहेज़ ही रखना उचित होता है। 

इसके चलते एक सच और भी है कि क्षेत्रीय और व्यक्तिगत प्रथाएं कुछ विशिष्ट तांत्रिक या क्षेत्रीय प्रथाओं में, भैरव पूजा के हिस्से के रूप में कुछ विशेष प्रकार के प्रसाद (जिन्हें महाप्रसाद कहते हैं) का उपयोग किया जाता है, लेकिन यह आम जनता के बीच प्रचलित नहीं है। सभी मंदिरों और सभी स्थानों पर यह होता भी नहीं। इसलिए मान कर चलिए कि यदि आप धार्मिक मान्यताओं का पालन करते हुए कालभैरव जयंती मना रहे हैं, तो इन चीजों का सेवन करने से बचना ही सबसे अच्छा माना जाता है।

फिर भी कुछ हद तक यह बात सच है कि कुछ लोग भैरव मंदिरों में शराब और कुछ मामलों में मांसाहारी प्रसाद भी चढ़ाते हैं। यह प्रथा मुख्य रूप से तांत्रिक परंपराओं और कुछ विशिष्ट मान्यताओं से जुड़ी हुई है, जिसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं। 

वैसे इस मुद्दे पर बात करते हुए शराब और नॉन-वेज प्रसाद चढ़ाने के जो कारण उनका भी कुछ न कुछ आधार तो होता ही है। काम ही सही पर इसका प्रचलन तो है ही। 

इस सब के साथ ही तांत्रिक परंपरा भी प्रचल्लित है। भैरव को तंत्र विद्या का देवता माना जाता है। तांत्रिक साधना में तामसिक चीजों का महत्व होता है, और शराब को भी इसी का हिस्सा माना जाता है। साधक और सेवक तरह केसवन से मिलने वाली ऊर्जा को अपनी साधना में उन्नति के लिए इस्तेमाल करते हैं। 

शायद सभी लोग न जानते हों लेकिन शिव के इस स्वरूप को तामसिक देवता मान कर भी पूजन किया जाता है।  काल भैरव को शिव का एक उग्र या तामसिक रूप माना जाता है। भक्तों का मानना ​​है कि ऐसी चीजें अर्पित करने से वह प्रसन्न होते हैं। इस लिए इस प्रसन्नता को हासिल करने के लिए ऐसी चीज़ें चढ़ाई भी जटरी हैं ,  इनका सेवन भी होता है इसका प्रसाद भी वितरित होता है। 

मनोवैज्ञानिक कारण:  यह सब एक और रहस्य के चलते भी किया जाता है। दुर्गुणों का समर्पण इस देवता के सामने बहुत श्रद्धा से किया जाता है। एक मान्यता यह भी है कि शराब जैसी बुरी आदतों को भगवान को समर्पित करके भक्त अपने अंदर के दुर्गुणों से मुक्ति पाने की प्रार्थना करते हैं। यह आत्म-नियंत्रण और सांसारिक मोह-माया से मुक्त होने का प्रतीक है। ऐसी साधना से धीरे धीरे ऐसे व्यसन छूट जाते हैं। 

बहुत पुरानी क्षेत्रीय और विशिष्ट परंपराएं हैं यह सब। भारत के कुछ विशेष मंदिरों में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। उदाहरण के लिए, उज्जैन के काल भैरव मंदिर में शराब चढ़ाने की प्रथा बहुत प्रसिद्ध है, जहां भक्त भगवान को शराब चढ़ाते हैं और उसे प्रसाद के रूप में भी ग्रहण करते हैं। ऐसा करके यदि आप ऐसे दुर्गुण छोड़ने में कामयाब हो जाते है तो यह सौदा भी महंगा नहीं है।  

मोहाली और चंडीगढ़ क्षेत्र में, श्री भैरव जाति मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। यह मंदिर सिसवां डैम के पास नया चंडीगढ़ में स्थित है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट आम तौर पर न मात्र जैसी ही है। अपने व्यक्तिगत या कराये के वाहन से ही पहुंचा जा सकता है। यह एक ऐसा मंदिर है जहाँ कुछ भक्त शराब का प्रसाद चढ़ाते हैं। इस आस्था को वहां पांच कर देखा भी जा सकता है और महसूस भी किया जा सकता है। यह मंदिर अपनी अनूठी परंपरा के लिए जाना जाता है, जहाँ भक्तों का मानना है कि भगवान काल भैरव को शराब चढ़ाने से उनकी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि:यह परंपरा मुख्य रूप से कुछ विशेष मंदिरों की है, न कि क्षेत्र के सभी भैरव मंदिरों की। साथ ही भैरव बाबा के सात्विक रूप भी तो हैं आप चाहें तो उस सवरूप की पूजा अर्चना कर सकते हैं। अन्य मंदिरों में, जैसे कि मनसा देवी परिसर के मंदिर में, आमतौर पर सात्विक प्रसाद ही चढ़ाया जाता है। कुल मिला कर मन की आस्था को पहल देना सब से ज़रूरी है। 

इसे विचार में रखना आवश्यक है कि मांसाहारी (नॉन-वेज) प्रसाद चढ़ाने के बारे में यह प्रथा भारत के कुछ बहुत ही विशिष्ट तांत्रिक मंदिरों तक ही सीमित है (जैसे कि कुछ काली मंदिर, जहां बकरी की बलि दी जाती है)। वास्तव में ऐसी प्रथाएं भी किसी गहरे रहसयमय कारणों से शुरू हुई होती हैं। कथाओं के आयोजन में इनकी चर्चा भो होती है। ऐसी किसी प्रथा में कोई स्वयं मांस मदिरा का सेवन करना छाए तो अलग बात है।  .