क्यूं होता है ऐसा और क्या होता है उपाय
हरिद्वार: 29 जुलाई 2022 (तंत्र स्क्रीन डेस्क)::
तंत्र और साधना अलग अलग शब्द होते हुए भी काफी हद तक एक दुसरे से जुड़े हुए हैं। बहुत से संगठन हैं जहाँ साधना का मतलब ही तंत्र साधना है। यह बात अलग है कि साधक को चरणबद्ध तरीके से इसकी जेकरि दी जाती है। सिद्धियां मिलने पर भी उसे शांत और मौन रहना होता है। जो साधक ख़ुशी से ज़्यादा ही उछलने लगते हैं उनकी साधना का विकास भी रुक जाता है। जो साधक नियमित तौर पर गुरु से ली दीक्षा के मुताबिक साधनाकरते रहते हैं उन्हें अछे अनुभव अक्सर होने लगते हैं। उनके रुके हुए काम भी होने लगते हैं। मुख मंडल पर तेज और सिद्धि की चमक हबी दिखाई देने लगती है। आत्मविश्वास में हैरानीजनक वृद्धि होती है।
दूसरी तरफ बहुत से साधकों को यह समस्या होने लगती है कि उन्हें कई बार कुछ वर्षों के बाद निराशा का सामना होना शुरू हो जाता है। उन्हें लगने लगता है कि उनके द्वारा की हुई सिद्धि अब काम नहीं कर रही। उनके तंत्र, मंत्र और हवन इत्यादि निरथर्क से लगने लगते हैं। जिस काम को लेकर सब कुछ किजा जाता है वह होता ही नहीं। जिसका आह्वान करते हैं उसके दर्शन भी नहीं होते। ऐसा सच में होता है। कोई आशंका या ग़लतफहमी नहीं होती। इसके कारण भी होते हैं।
वास्तव में इसके पीछे कहीं न कहीं साधक अथवा साधिका की स्वयं की ही गलती होती है। जब जब भी अहंकार आने लगता है। सिद्धियों का गलत प्रयोग होने लगता है। निर्दोष मासूम लोगों का नुकसान होने लगता है तब तब सिद्धियों में भी व्यवधान आने लगता है और सिद्धियां भूलने भी लगती हैं। उनमे प्रमुख कारण है शक्ति के प्रयोग का विधि विधान भूल जाना। सिद्ध की हुई सिद्धि के मंत्र को भूल जाना अथवा कभी कभी मंत्र स्मरण का जाप भी याद न रहना। जब जब मंत्र नियमित तौर पर भी नहीं नहीं जपा जाता तब तब भी ऐसी समस्या आती है। तंत्र साधना में नियमित साधना आवश्यक है।
ऐसी स्थिति तब तब भी विकट बनती है जब जब चरित्र की दुर्बलता आने लगती है। इसके अलावा सबसे प्रबल कारण है चरित्र से भटक जाना। चरित्र के मार्ग से भटकते ही बुद्धि भर्मित रहने लगती है। उसे सही गलत का ज्ञान भूलने लगता है। ऐसी स्थित में अक्सर होता है कि कुछ अन्य महत्वपूर्ण सूत्र जो गुरु अथवा मार्ग दर्शक के द्वारा सिखाए गए होते हैं साधक उन्हें भी भूल जाता है।
यह हालत बहुत बार दयनीय भी बन जाती है। बाहर से सब कुछ सही लगता है लेकिन साधक के अंदर की शक्ति खत्म हो चुकी है। ऐसी अवस्था में सिद्धि के होते हुए भी मनुष्य शक्तिहीन हो जाता है। इस स्थिति में जल्द ही संभला न जाए तो भौतिक और शरीरक समस्याएं भी आने लगती हैं।
साधक का नाम तो अतीत में बन चूका होता है लेकिन वो न ही किसी पारलौकिक समस्या को ठीक कर सकता है न ही किसी के विषय में भूत काल से सम्बंधित घटनाओं को जान सकता है न ही स्वयं को ठीक कर पाता है। ऐसे में गुरु का समरण ही उसे बचाता है। गुरु ही उसकी अशुद्धियां दूर कर के उसे शुद्ध करता है। साधना को फिर से करने के बाद ही उसे सिद्धियों की वापिसी मिलती है। ऐसा न करने पर उसका नाम पहले की तरह नहीं रहता।
इस वापिसी के बिना साधक न ही भविष्य में घटित होने वाली सम्भावित घटनाओं का सही विश्लेषण भी नहीं कर सकता है। उसे खतरे का आभास होना भी बंद हो जाता है। उसके मन में निराशा, क्रोध और अन्य उपद्रव उठने लगते हैं।
इस लिए आवश्यक है कि सिद्धि प्राप्ति के बाद साधक को सदैव अभ्यास करते रहना चाहिए। उसे हमेशां नैतिक मूल्यों को याद रखना चाहिए। सिद्धि शक्ति के प्रयोगों का और समय समय पर हवन क्रियाओं द्वारा ऊर्जा को बढ़ाते रहना चाहिए। इससे उसकी सिद्धियां बनी रहेंगी , न केवल बनी रहेंगी बल्कि इनमें वृद्धि भी होगी।