Saturday, December 11, 2021

बीमारी क्यूं कभी अकेली नहीं आती?

ओशो बताते हैं गहरा रहस्य जो हर किसी को पता होना चाहिए 


सोशल मीडिया
: 11 दिसंबर 2021: (तंत्र स्क्रीन डेस्क)::

कभी कभी बड़ी बड़ी बीमारियां भी इंसान को हरा नहीं पाती वह अपने रूटीन में चलता जाता है लेकिन कभी कभी नज़ला ज़ुकाम का छोटा सा अटेक भी मुसीबत खड़ी कर देता है। मैं हैरान था कि कभी कभी छोटी सी बीमारी मजबूरी क्यूं बन जाती है? इस बार मुझे इसका अटेक हुआ  एक पुराने मित्र के अचानक आने से। मुझे लगा कि शायद उसे भी था इस लिए मुझे भी इंफेक्शन हो गयी। इस बीमारी में पढ़नलिख्ना सम्भव ही नहीं था इस लिए सोचता रहा। मसाले वाली चाय पी और इंफेक्शन की गोली भी खाई। तभी ध्यान में आया की आज तो 11 दिसंबर है। ओशो का अवतरण दिवस। फोन पर कुछ तलाश किया तो ओशो की ढेर सारी समग्री मिली। इन्हीं में एक है जिनमें ओशो कहते हैं: बीमारी अकेली नहीं आती।  

ओशो ने जो बताया वह अनमोल है। समझने की गहरी बात है। उसी में है आरोग्य रहने का रहस्य। एक बहुत बड़ा सीक्रेट। ओशो बाकायदा हवाला देते हुए कहते हैं: आधुनिक मनोविज्ञान कहता है  कि जब तक आदमी का मन न बदला जाए, तब तक किसी बीमारी से वस्तुत: छुटकारा नहीं होता।

इसलिए तुमने भी देखा होगा, एक दफे बीमारी के चक्कर में पड़ जाओ तो उससे बचने का रास्ता नहीं दिखता। किसी तरह एक बीमारी से निकल नहीं पाते कि दूसरी घर कर लेती है, 'कि दूसरे से निकल नहीं पाते कि तीसरी घर कर लेती है। ऐसा लगता है, एक कतार है बीमारियों की, तुम एक से निपटे कि दूसरी बीमारी पकड़ती है। जब तक ठीक थे, ठीक थे। इसलिए लोग कहते हैं, बीमारी अकेली नहीं आती। कहावतें कहती हैं, बीमारी अकेली नहीं आती। संग—साथ में और बीमारियां लाती है। दुख अकेला नहीं आता, साथ में भीड़ लाता है।

इसका कारण? इसका कारण न तो दुख है, न बीमारी है। इसका कारण यह है कि मूल को हम छूते नहीं।

समझो कि एक वृक्ष की जड़ों में रोग लग गया है और पत्ते विकृत होकर आने लगे हैं। पूरे खिलते नहीं, पूरे खुलते नहीं, हरियाली खो गयी है। तुम पत्ते काटते रहो, या पत्तों पर मलहम लगाते रहो, या पत्तों पर जल का छिड़काव करते रहो—गुलाब जल का छिड़काव करो, तो भी कुछ बहुत होगा नहीं। जड़ जब तक आमूल स्वस्थ न हो तब तक कुछ भी न होगा।

मनुष्य की जड़ उसके मन में है। मनुष्य शब्द ही मन से बना है। मनुष्य यानी जो मन में रुपा है, मन में गड़ा है। उर्दू का शब्द है, आदमी, वह उतना महत्वपूर्ण नहीं। उसमें बहुत गहरा अर्थ नहीं है। उसमें जो अर्थ भी है, वह छिछला है। आदम का अर्थ होता है, मिट्टी। 'जो मिट्टी से बना है, उसको कहते आदमी। क्योंकि भगवान ने पहले आदमी को मिट्टी से बनाया और फिर उसमें श्वास फूंक दी, इसलिए उसका नाम आदम। फिर आदम के जो बच्चे हुए, उनका नामे आदमी। आदमी मिट्टी से बना है, मतलब आदमी देह है।

हमारी पकड़ इससे गहरी है। हम कहते है, मनुष्य। अंग्रेजी का मैन भी संस्कृत के मन का ही रूपांतर है। वह भी महत्वपूर्ण है। हम कहते हैं, मनुष्य। हम कहते हैं, मिट्टी नहीं है आदमी, आदमी है मन, आदमी है विचार, आदमी है उसका मनोविज्ञान। जैसे ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी आदम को पहला आदमी मानते हैं, हम नहीं मानते। क्योंकि आदम होना तो आदमी का ऊपरी वेश है, वह असली बात नहीं है। असली बात तो भीतर छिपा हुआ सूक्ष्म रूप है।

मनुष्य का अर्थ ही होता है, जिसकी जड़ें मन में गड़ी हैं। लेकिन आधुनिक खोजें इस सत्य के करीब आ रही हैं। आधुनिक खोजें इस बात को स्वीकार करने लगी हैं कि आदमी शरीर पर समाप्त नहीं है। न तो शरीर पर शुरू होता है, न शरीर पर समाप्त होता है। शरीर तो घर है जिसमें कोई बसा है। फिर हम यह भी नहीं कहते कि आदमी मन पर समाप्त हो जाता है, हम कहते हैं, मन में गड़ा है। है तो मन से भी पार। इसलिए आदमी है तो आत्मा।

अब इन तीन शब्दों को ठीक से लेना—आत्मा, मन, देह। मन दोनों के बीच में है। मन को तुम शरीर से जोड़ दो तो संसारी हो जाते हो और मन को तुम आत्मा से जोड़ दो तो संन्यासी हो जाते हो। मन के जोड़ का सारा खेल है। आत्मा भी तुम्हारे भीतर है, शरीर भी तुम्हारे पास है, बीच में डोलता हुआ मन है। इसलिए मन सदा डोलता है। डांवाडोल रहता है। मध्य में लहरें लेता रहता है। अगर तुम्हारा मन शरीर की छाया होकर चलने लगे तो तुम संसारी, अगर तुम्हारा मन आत्मा की छाया होकर चलने लगे, तुम संन्यासी। कुछ और फर्क नहीं है। मन अगर अपने से नीचे की बात मानने लगे तो संसारी, मन अगर अपने ऊपर देखने लगे तो संन्यासी।

संन्यास की धारणा इस देश में पैदा हुई, क्योंकि हमें यह बात समझ में आ गयी कि मन दो ढंग से काम कर सकता है। मन तटस्थ है। मन की अपनी कोई धारणा नहीं है। मन यह नहीं कहता, ऐसा करो। तुम पर निर्भर है। तुम चाहो तो मन को शरीर के पीछे लगा दो, तो वह शरीर की गुलामी करता रहेगा। मन तो बड़ा अदभुत गुलाम है। उस जैसा आज्ञाकारी कोई भी नहीं। तुम उसे आत्मा की सेवा में लगा दो, वह आत्मा की सेवा में लग जाएगा। तुम उसे लोभ में लगा दो, वह लोभ बन जाएगा। तुम उसे करुणा में लगा दो, वह करुणा बन जाएगा।

सारे धर्म की कला इतनी ही है कि हम मन को नीचे जाने से हटाकर ऊपर जाने में कैसे लगा दें। और खयाल रखना, जो सीढ़ियां नीचे ले जाती हैं वही सीढ़ियां ऊपर ले जाती हैं। सीढ़ियां तो वही हैं। ऐसा भी हो सकता है कि दो आदमी बिलकुल एक जैसे हों, एक जगह हों, और फिर भी एक संन्यासी हो और एक संसारी हो।

ओशो.

एस धम्मों सनंतनो

प्रवचन:: 75

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